पानी जिसका ना कोई रूप है और ना ही कोई आकार
जन्मलिया, कुछ बंधा रिश्तों से , कुछ उन्मुक्त बहता रहा।
बहता-बहता एक दिन जा टकराया प्यार से ,
प्यार की वादियाँ, चारों तरफ़ हरियाली, महकते हुए फूल, खुशिया ही खुशियाँ
मैं बहता रहा मस्ती से छलकते हुए।
फिर एक दिन प्यार बोला-
तुम्हे जाना होगा।
और बाँध दिया एक बाँध मेरे और उसके बीच।
मैं, मैं तो सरे रास्ते छोड़ बह चला था,
प्यार की वादियों में।
बिना राह, मैं बाँध के इस ओर बंधने लगा।
रिश्तों ने फिर आवाज़ दी॥
पर लौटू कैसे?
मैं तो बंध चुका हूँ।
रिश्तो ने नहर बने...
फिर मुझे वापस ले आए, उस दुनिया में , जो मेरी थी।
jaha मैंने जन्म लिया था॥
२२/१०/2008
3 comments:
सुंदर रचना. जीवन में इस तरह के संघर्ष करने ही पड़ते है.
हमने कुछ लिखा और किसी ने नहीं पढ़ा या नहीं सराहा टिप्पणी नहीं की तो लिखना बंद कर दिया यह लेखक कवि साहित्यकार का काम नहीं है /हम शब्द साधना करते हैं /शब्द की उपासना ब्रह्म की उपासना है /लेखन में समग्र चिंतन हो ,यथार्थ की अभिव्यक्ति का प्रकाश हो /रचना प्रेरणास्पद हो ,सारगर्भित और सम्बेद्नशील कथ्य हों तो लिखा ही जाना चाहिए बगैर इस बात की परवाह किए की कोई सराहता है या नहीं /पहले तो लेखक संपादक के अधीन रहता था छापेगा या नही नहीं भी छपते थे शरद जोशी जी की नहीं छापी ,भगवती चरण वर्मा की नहीं छापी उनके उपन्यास की आलोचना की गई बाद में उस पर फ़िल्म बनी /मेरा निवेदन यह है की लिखना बंद मत करो यह सरस्व्त्याराधन है /धन्यवाद /
Bahut ki achcha likha hai
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