Friday, October 17, 2008

"आस"

बढ चला हूँ एक अनजान राह पर,
फीर भी दिल को तेरी आस है बाकी ।
लम्हा-लम्हा घटती जा रही है दूरी,
फीर भी तेरे आने की आस है बाकी ।
दो कदम चलता हूँ और फीर पलट कर देखता हूँ,
इन ड़ब-ड़बaai आखों में, तुझे देख पाने की प्यास है बाकी ।

डगमगाने लगे है अब कदम......
टूटने लगी है साँसो की डोर.....
बंद होती इन आखों में फीर एक बार तुझे देख पाने की आस है बाकी ।
ना जाने कब टूट जाए ये जीवन-माल ,
क्या जाने पूरी हो ना हो,तुझे देख पाने की आस बाकी.

१७/१०/२००८

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