Saturday, November 5, 2022

कभी लगता है शब्दों की चादर फैला दू ,

कभी लगता है ख़ामोशी को बिखेर दू। 

गोते खाता इस भॅवर में ये मन ,

किनारे को ढूढ़ता है। 

क्या कभी कोई किनारा पा पाता है ?

या फिर इन लहरों में कभी डूबता, कभी उबरता 

इस भव सागर से तर जाता है। 

मेरे कान्हा अब तो आओ ,



मुझे इस भॅवर से बचाओ। 

बस डूब जाऊ तेरी भक्ति के रस में ,

कुछ और नहीं है चाह। 

फिर ये तेरी मर्जी चाहे पार लगा दे ,

या युहीं मझधार में छोड़ दे। 
 

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