कभी लगता है शब्दों की चादर फैला दू ,
कभी लगता है ख़ामोशी को बिखेर दू।
गोते खाता इस भॅवर में ये मन ,
किनारे को ढूढ़ता है।
क्या कभी कोई किनारा पा पाता है ?
या फिर इन लहरों में कभी डूबता, कभी उबरता
इस भव सागर से तर जाता है।
मेरे कान्हा अब तो आओ ,
मुझे इस भॅवर से बचाओ।
बस डूब जाऊ तेरी भक्ति के रस में ,
कुछ और नहीं है चाह।
फिर ये तेरी मर्जी चाहे पार लगा दे ,
या युहीं मझधार में छोड़ दे।
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