बढ चला हूँ फिर मंजिल की
तलाश में,
मंजिल, जिसे मैंने समझा था कि पा लिया है,
अब
पर भोर की दस्तक के साथ जब खुली आख,
और स्वप्न टुटा।
तो जाना कि यह मंजिल नही,
उसकी राह का एक पड़ाव है।
सोचा था कि ये पड़ाव ही मेरी मंजिल है और साथी,
हमराही।
और अब भोर के उजियाले में , खुली आँख के साथ ,
फिर बढ चला हूँ ,
मंजिल की तलाश में॥
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment